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Part 1
Part 2
मुग़ल और मुरादाबाद
मेने आज ही
मुग़लों के बारे मे किताब मे पढ़ा
दिलचप्स लोग थे और शायद पड़ोस मे ही रहते थे
तो ढूँढने उनको में भी निकल पड़ा
छाना अपना सारा मोहल्ला
पूरा का पूरा मुग़लपुरा
तंग आके मेने पूछा, की चचा
ये मुगल मुगलपुरे मे नही रहते क्या ?
चाचा ने मस्त हुक्कह फूकते हुए कहा
वो तुम्हे घुइयाँ बाग़ मे मिल जाएँगे
कुछ मुगल भिष्तीओं के मक़ानो से पहले
वहीं घुइयाँ बाग़ मे रहते हैं
तो में घुइयाँ बाग़ गया
वहाँ ना तो घुइयाँ थी और ना ही बाग
और मुगल तो घुइयाँ ना मिले
हाँ एक पोस्टर ज़रूर दिखा
“मुगल-ए-आज़म” का
मैं दौड़ा दौड़ा सबसे पास के टाकीज़ गया
जो बारह दरी के पास था,
वहाँ एक भी दरी ना दिखी
पर कमल टाकीज़ दिख गया
वहाँ कुछ पोस्टर लगे थे
जो मुझे समझ नहीं आरहे थे
तड़पती जवानी , प्यासी पड़ोसन, भूकी भाभी,
यहाँ ज़ुरूर बेचारे भूके प्यासे लोगों की
फिल्में दिखाई जाती होंगी
बहराल में आगे बढ़ा
मुगलों की तलाश में
गुरहट्टी पर छोटी सी दुकान थी
जिसपर लिखा था गुरु की हट्टी
दुकान छोटी थी पर भीड़ बहुत ज़्यादा
शायद वहाँ शरबत बॅट रहा था
हमारे मोहल्ले मे क्यूँ नहीं बँटता ऐसा शरबत?
शरबत के इंतिज़ार मे खड़े
एक सज्जन से मेने पूछा
“जनाब ये मुग़ल कहाँ मिलेंगे?”
“कम्बख़्त! वो ज़ालिम मुग़ल तो
सारे क सारे मर गये
अब तो मक़बरे मे ही मिलेंगे”
मैं खुश हो गया की मक़बरा तो
मुग़लपूरा के पीछे ही है
और वहीं तो मेरा घर था
घर जाते वक़्त बहुत सी दिलचस्प जगहें पड़ीं पर
बूढ़ों क चौरहे पर तो बूढ़े थे ही नही
हाँ ईदगाह पर ईदगाह थी
दो चौराहे और
दो पुलियाँ भी पड़ीं
पर बाकी मोहल्लों की तरहा
लंगड़े की पुलिया पे
ना तो लंगड़ा था ना ही पुलिया
पर मज़े की बात ये थी
कि चमारों की पुलिया को लोग
अब इंद्रा चौक कह रहे थे
और जिन शक़स ने मुझे ये इल्म दिया
उन्होने ही बड़े प्यार से समझाया
"बेटा बेशक मुग़ल मर गये
मुग़लपूरे मे जो ज़ात से मुग़ल हैं वो रहते हैं
जैसे कंजरी सराए मे कंज़र, और पीरज़ादे मे जुलाहे
बेटा तुम ग़लत शहर मे ढूँढ रहे हो
मुगलों के मक़बरे तो दिल्ली और आगरा में मिलेंगे
यहाँ मुरादाबाद में नहीं!"
Part 1
मुग़ल और मुरादाबाद
मेने आज ही
मुग़लों के बारे मे किताब मे पढ़ा
दिलचप्स लोग थे और शायद पड़ोस मे ही रहते थे
तो ढूँढने उनको में भी निकल पड़ा
छाना अपना सारा मोहल्ला
पूरा का पूरा मुग़लपुरा
तंग आके मेने पूछा, की चचा
ये मुगल मुगलपुरे मे नही रहते क्या ?
चाचा ने मस्त हुक्कह फूकते हुए कहा
वो तुम्हे घुइयाँ बाग़ मे मिल जाएँगे
कुछ मुगल भिष्तीओं के मक़ानो से पहले
वहीं घुइयाँ बाग़ मे रहते हैं
तो में घुइयाँ बाग़ गया
वहाँ ना तो घुइयाँ थी और ना ही बाग
और मुगल तो घुइयाँ ना मिले
हाँ एक पोस्टर ज़रूर दिखा
“मुगल-ए-आज़म” का
मैं दौड़ा दौड़ा सबसे पास के टाकीज़ गया
जो बारह दरी के पास था,
वहाँ एक भी दरी ना दिखी
पर कमल टाकीज़ दिख गया
वहाँ कुछ पोस्टर लगे थे
जो मुझे समझ नहीं आरहे थे
तड़पती जवानी , प्यासी पड़ोसन, भूकी भाभी,
यहाँ ज़ुरूर बेचारे भूके प्यासे लोगों की
फिल्में दिखाई जाती होंगी
बहराल में आगे बढ़ा
मुगलों की तलाश में
गुरहट्टी पर छोटी सी दुकान थी
जिसपर लिखा था गुरु की हट्टी
दुकान छोटी थी पर भीड़ बहुत ज़्यादा
शायद वहाँ शरबत बॅट रहा था
हमारे मोहल्ले मे क्यूँ नहीं बँटता ऐसा शरबत?
शरबत के इंतिज़ार मे खड़े
एक सज्जन से मेने पूछा
“जनाब ये मुग़ल कहाँ मिलेंगे?”
“कम्बख़्त! वो ज़ालिम मुग़ल तो
सारे क सारे मर गये
अब तो मक़बरे मे ही मिलेंगे”
मैं खुश हो गया की मक़बरा तो
मुग़लपूरा के पीछे ही है
और वहीं तो मेरा घर था
घर जाते वक़्त बहुत सी दिलचस्प जगहें पड़ीं पर
बूढ़ों क चौरहे पर तो बूढ़े थे ही नही
हाँ ईदगाह पर ईदगाह थी
दो चौराहे और
दो पुलियाँ भी पड़ीं
पर बाकी मोहल्लों की तरहा
लंगड़े की पुलिया पे
ना तो लंगड़ा था ना ही पुलिया
पर मज़े की बात ये थी
कि चमारों की पुलिया को लोग
अब इंद्रा चौक कह रहे थे
और जिन शक़स ने मुझे ये इल्म दिया
उन्होने ही बड़े प्यार से समझाया
"बेटा बेशक मुग़ल मर गये
मुग़लपूरे मे जो ज़ात से मुग़ल हैं वो रहते हैं
जैसे कंजरी सराए मे कंज़र, और पीरज़ादे मे जुलाहे
बेटा तुम ग़लत शहर मे ढूँढ रहे हो
मुगलों के मक़बरे तो दिल्ली और आगरा में मिलेंगे
यहाँ मुरादाबाद में नहीं!"
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