एक नदी को नहीं बाँध सकता तू।छोड़ दे मुझे
मेरी वीणा, किताबों, मन तक, जो समझे मुझे।
मैं जन्मी थी पानी से और चट्टानों से और सदियों
पुराने गानों से।यूं ना सोचना, ब्रह्मा, तुम जनमे मुझे।
त्याग दे अहंकार से भरे, सांड और घोड़े के शिकार को,
इस भ्रष्ट चाह को जिसे तू प्यार कहे। यह न जीते मुझे।
दबे पाओं जब तू मेरे घर घुसे, तब याद रखिओ
मोर सापों का भक्षक भी है। तू क्या बहकाये मुझे।
चार हाथ छिपाये, एक बाण, एक तीर, एक त्रिशूल
अपने संरक्षण के लिए, उन मर्दों से जो सताएं मुझे।
तौफे में देने वाला फूल नही, ना हरी होने को तत्पर कोख,
एक अजीब औरत ही सही (तू बता तू क्या समझे मुझे?)
मैं झप्पीं दूँ, गाली दूँ, पढ़ाऊं, खेलूं, और क्रोध से रौंध दूँ! मैं हूँ
हवा से बिखरे पत्तों जैसी। लेकिन गठरी में ना तू जकड़े मुझे।
मैं बच्ची हूँ और नारी भी, कच्चा धागा और तेज़ सुई भी,
कोमल, जंगली कोप हूँ। मेरे सिवा, कोई न बुन पाए मुझे।
अदिति: तुम्हे भी है अधिकार अपनी आज़ादियों का।
चाहे फिर वो कुछ भी कहे, आज सही मानले मुझे।
मेरी वीणा, किताबों, मन तक, जो समझे मुझे।
मैं जन्मी थी पानी से और चट्टानों से और सदियों
पुराने गानों से।यूं ना सोचना, ब्रह्मा, तुम जनमे मुझे।
त्याग दे अहंकार से भरे, सांड और घोड़े के शिकार को,
इस भ्रष्ट चाह को जिसे तू प्यार कहे। यह न जीते मुझे।
दबे पाओं जब तू मेरे घर घुसे, तब याद रखिओ
मोर सापों का भक्षक भी है। तू क्या बहकाये मुझे।
चार हाथ छिपाये, एक बाण, एक तीर, एक त्रिशूल
अपने संरक्षण के लिए, उन मर्दों से जो सताएं मुझे।
तौफे में देने वाला फूल नही, ना हरी होने को तत्पर कोख,
एक अजीब औरत ही सही (तू बता तू क्या समझे मुझे?)
मैं झप्पीं दूँ, गाली दूँ, पढ़ाऊं, खेलूं, और क्रोध से रौंध दूँ! मैं हूँ
हवा से बिखरे पत्तों जैसी। लेकिन गठरी में ना तू जकड़े मुझे।
मैं बच्ची हूँ और नारी भी, कच्चा धागा और तेज़ सुई भी,
कोमल, जंगली कोप हूँ। मेरे सिवा, कोई न बुन पाए मुझे।
अदिति: तुम्हे भी है अधिकार अपनी आज़ादियों का।
चाहे फिर वो कुछ भी कहे, आज सही मानले मुझे।
(Theme: Response, Form: Ghazal
Translation of River Goddess by Aditi Rao)
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