In response to Aditi Rao's 'A letter to a Kashmiri friend'
मासूम खून जितनी असानी से रोज़ झेलम में फिकता है
लगता है तुम्हें दर्द-ओ-ज़ख्म-ओ-मौत सिर्फ़ तमाशा दिखता है
मेरे बागीचे से गुलाबों की खुशबू किसी को आएगी भी कैसे
मेरे वतन में फूलों से कहीं ज़्यादा तो बारूद बिकता है
ये खाकी वर्दी ये वादी चीरते तार तुम्हें यहां नज़र आएंगे कैसे
तुम्हें हाथों से फिसलती जन्नत के अलावा और क्या दिखता है
अदिति अपने मुल्क की हमारी सरज़मी पर ज़रा खुद्दारी तो देखो
सर कलामी की ग़ज़ल में तख़ल्लुस में खुद को रहमान लिखता है
मासूम खून जितनी असानी से रोज़ झेलम में फिकता है
लगता है तुम्हें दर्द-ओ-ज़ख्म-ओ-मौत सिर्फ़ तमाशा दिखता है
मेरे बागीचे से गुलाबों की खुशबू किसी को आएगी भी कैसे
मेरे वतन में फूलों से कहीं ज़्यादा तो बारूद बिकता है
ये खाकी वर्दी ये वादी चीरते तार तुम्हें यहां नज़र आएंगे कैसे
तुम्हें हाथों से फिसलती जन्नत के अलावा और क्या दिखता है
अदिति अपने मुल्क की हमारी सरज़मी पर ज़रा खुद्दारी तो देखो
सर कलामी की ग़ज़ल में तख़ल्लुस में खुद को रहमान लिखता है
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